वैदिक ज्ञान
भारतीय संस्कृति में योग शब्द वेदों, उपनिषदों, समृतियों, आरण्यकों, महाभारत आदि आर्षग्रन्थों में पुरातन काल से ही व्यवहृत होता आया है। गीता का कर्मयोग विश्व विश्रुत है। महर्षि पतञ्जलि ने योग को एक सुनिश्चित वैज्ञानिक पद्धति में प्रतिपादित किया है जिसे योगदर्शन के रूप में प्रसिद्धि मिली है। प्राचीनकाल से ही ऋषि-मुनि आत्म साक्षात्कार पूर्वक परमसत्ता से तादात्म्य के लिए योग का ही अवलम्ब अपनाया करते थे। ज्ञान, तप, भक्ति की साधनाओं को आत्म शुद्धि के लिए अपनाकर ईश साक्षात्कार की वैदिक प्रणाली ही योग के रूप में प्रचलित हुई है। वैदिक वाङ्मय के सम्यक अनुशीलन से यह सुतराम सिद्ध है कि योग की मूल धारा अति प्राचीन एवं अन्य विधाओं की भांति ही अपौरुषेय वाणी वेद मूलक ही है।
सभी वैदिक ऋषियों ने वेद से ही सर्व विद्याओं का उद्भव माना है। वैदिक ज्ञान परम्परा में ईश्वर ही सर्व विधाओं और ज्ञान का मूल कारण है और वह ही आदि सृष्टि में सर्वज्ञानमयी अपौरुषेय वाणी द्वारा ज्ञान को देने वाला प्रथम गुरु है। ज्ञान की उसी परम्परा के अनुसार योग भी ईश्वरोक्त है।
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यजुर्वेद के बाइसवें अध्याय के बाइसवें मन्त्र का भाष्य करते हुए महर्षि ने लिखा है कि विद्वानों को ईश्वर की प्रार्थना सहित ऐसा अनुष्ठान करना चाहिए कि जिससे पूर्णविद्या वाले शूरवीर मनुष्य तथा वैसे ही गुणवाली स्त्री, सुख देनेहारे पशु, सभ्य मनुष्य, चाही हुई वर्षा, मीठे फलों से युक्त अन्न और औषधि हों तथा कामना पूर्ण...