परमात्मतत्व
मौलिकता बाहरी नहीं, बल्कि हमारे आतंरिक स्वरूप से निर्धारित होती है। अध्यात्म क्षेत्र में तो यह सिद्धांत विशेष रूप से लागु होता है। महर्षि रमण जैसे मौनी संत, रामकृष्ण परमहंस जैसे बालसुलभ सरलता की प्रतिमूर्ति, स्वामी विवेकानंद जैसे तेजस्वी वक्त, कबीर जैसे फक्कड़ जुलाहे, रैदास जैसे जूता गाँठते संत, मीराबाई जैसी नाचती-गति भक्त-बाहर से देखने में इनमें अंतर जान पड़ सकता है, लेकिन चेतना के स्तर पर भी सभी उस परमात्मतत्व से एकात्म चेतना के शिखर पर आरूढ़ आत्माएँ थीं। बाहरी अभिव्यक्ति सबकी अपने मौलिक स्वरूप के अनुरूप भिन्न-भिन्न थी।
Originality is not determined externally, but by our internal nature. This principle is especially applicable in the spiritual field. A silent saint like Maharishi Raman, an icon of child-friendly simplicity like Ramakrishna Paramhansa, a dazzling time like Swami Vivekananda, a prankster weaver like Kabir, a shoe-knotting saint like Raidas, a dancing-tempo devotee like Meerabai- there may be a difference in view from outside, but Even at the level of consciousness, all were souls mounted on the summit of consciousness, one with that divine being. The outward expression was different for everyone according to their original nature.
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यजुर्वेद के बाइसवें अध्याय के बाइसवें मन्त्र का भाष्य करते हुए महर्षि ने लिखा है कि विद्वानों को ईश्वर की प्रार्थना सहित ऐसा अनुष्ठान करना चाहिए कि जिससे पूर्णविद्या वाले शूरवीर मनुष्य तथा वैसे ही गुणवाली स्त्री, सुख देनेहारे पशु, सभ्य मनुष्य, चाही हुई वर्षा, मीठे फलों से युक्त अन्न और औषधि हों तथा कामना पूर्ण...